विस्तृत जानकारी
मानवतामय विश्व बनाएं
Nirankari Vichar Satguru Mata Sudiksha Ji |
मनुष्य का मनुष्योचित व्यवहार मानवता है। मानवता सन्त महापुरुषों के अत्यन्त महत्वपूर्ण उद्घोष मनुर्भव का अनुपालन है। मानवता मनुष्यत्व का संविधान है जिसमें मनुष्य को क्या करना चाहिए अर्थात् प्यार, नम्रता, सत्कार, विशालता, सहनशीलता, परोपकार आदि अपनाने का निर्देश है और क्या नहीं करना चाहिए अर्थात् वैर, द्वेष, हिंसा, घृणा, संकीर्णता, खुदगर्जी आदि को त्याग देने की हिदायत है।
मनुष्य को मानव, मानुष, मानस भी कहा गया है। मानव को । नियंत्रित, निर्देशित करने में मन की विशेष भूमिका होती है। मन ही मानव को मानवेन्द्र बनाता है और मन मानसव्रती भी। राजसी ऐश्वर्य और धन-सम्पदाओं की चाह रखता है तो मानसवती सत्य, प्रेम, दया, करुणा, स्नेह, अहिंसा आदि मानवोचित व्यवहारों द्वारा परमपद पाता है। मानस शास्त्री, मानव मन की विभिन्न वृत्तियों, क्रियाओं आदि अध्ययन की कुशलता तो हासिल कर सकते हैं लेकिन मानवता अपनाकर समग्र मानव बनने की शिक्षा-दीक्षा केवल सदगुरु के पास होती है जो करुणा करके मानव को उसके वास्तविक स्वरूप में स्थित करते हैं। सद्गुरु यह कार्य शरणागत की किसी विशिष्टता के कारण नहीं अपितु निज करुणा द्वारा ही करते हैं। पारिवारिक उलझनों में फंसे अर्जुन का सद्गुरु श्री कृष्ण जी ने हर प्रकार उद्धार करने का यत्न किया और उसे बुद्ध के मैदान में ही तत्वबोध जैसी अनमोल वस्तु प्रदान की।
मानवता स्वार्थ से परमार्थ की ओर की यात्रा है। मानवता जियो और जीने दो का संस्कार देने और स्वहित से परहित की ओर ले जाने वाली भावना से युक्त सुगन्ध भरी बयार है। मानवता हर मानव के लिए अपनाने योग्य है क्योंकि मानव ही इसके लिए अधिकृत है, कोई भी पशु या पक्षी मानवता अपनाने का अधिकारी नहीं है। कोयल कितना भी मीठा बोल ले, फूल कितने भी सुकोमल और सुन्दर क्यों न हों, सागर कितना भी गंभीर क्यों न हो, चाँद शीतलता देने वाला हो या सूर्य ऊष्मा व प्रकाश देने वाला हो लेकिन मानवता की अपेक्षा मानव से ही है, अन्य से नहीं।
मानवता दानवता और पशुता व्यक्ति के स्वभाव की विभिन्न स्थितियाँ हैं। शिशु निरोल मानव और पूर्णतः विकारों से मुक्त होता है। सुमति, संस्कार, संस्कृति और संग व्यक्ति को मानव, दानव अथवा पशुवत बनाते हैं। संग, शिक्षा और संस्कार खराब हुए तो इंसान मानवीय विकारों की गंदगी में डूबता चला जाता है। किसी इंसान को गंदगी से निकालना तो आसान है, गंदगी से निकालकर उसे साफ-सुधरा भी किया जा सकता है। माताएं अक्सर बच्चों की गंदगी दूर करके उन्हें साफ-स्वच्छ बनाती है, वे फिर गंदे होते हैं फिर ठीक किए जाते हैं लेकिन इसान के अंदर की गंदगी को निकालना आसान नहीं होता। सन्त महापुरुष इंसान के अंदर की गंदगी निकालकर उन्हें मानवतामय बना देते हैं। अंगुलिमाल के जीवन में कुछ ऐसी घटनाएं घटी कि वह हिंसा से भर उठा। महात्मा बुद्ध ने उसे ठहरने की शिक्षा दी और उसकी जीवन दिशा ठीक हो गई।
सद्गुरु वेष-भूषा नहीं बदलता, किसी का धर्म परिवर्तन भी नहीं करता क्योंकि इनको बदलने का कोई विशेष अर्थ नहीं नजर आता। सद्गुरु भाव बदल देता है, दृष्टि परिवर्तित कर देता है क्योंकि जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि बोतल या उस पर लिखे जहर शब्द का लेबल हटाने से उसके अन्दर के विष की जान लेने की क्षमता खत्म नहीं होती, सद्गुरु व्यक्ति रूपी बोतल के अंदर का जहर निकालकर अमृत भर देते हैं और व्यक्ति के व्यवहार में जमीन-आसमान का अन्तर आ जाता है। सदगुरु बाबा
हरदेव सिंह जी महाराज फरमाते हैं दुर्भावनाओं ने सदा से मानवता का नुक्सान किया है। पहले जो बोया गया, सो बोया गया. अब मनों में ऐसे बीज बोए जाएं जिनसे शूल नहीं फूल उपजें।
संसार अपराधी को क्षमादान नहीं देता। क्षमादान देकर दानव को भी मानव बनाने का कार्य केवल सद्गुरु करते हैं। कहते हैं जिसकी आँखें खूबसूरत होंगी उसको दुनिया अच्छी लगेगी लेकिन जिसकी जुबान अच्छी होगी वह दुनिया को अच्छा लगेगा तभी तो कहा जाता है कि एक
खूबसूरत दिल हजार खूबसूरत चेहरों से अच्छा होता है।
सदगुरु दिल को खूबसूरती प्रदान करते हैं।
हर मानव प्रेमी मानवता का ही उपासक होता है वह नर सेवा के द्वारा नारायण की पूजा कर रहा होता है। जहाँ सुगंध भरे फूल ही फूल हो वहाँ दुर्गन्ध नहीं होती। जहाँ मानवता के महकते पुष्प हो वहाँ जीवन बोझ नहीं रहता उत्सव बन जाता है, वहाँ दानवता के तांडव की संभावनाएं समाप्त हो जाती हैं।
मानवता अपनाने से मानव सुशोभित होता है और इसे त्यागकर कलंकित। दिल्ली की एक पॉश कालोनी में महीनों भूखी-प्यासी रहने के कारण मर गई दो बहनों की खोज-खबर लेने कोई पड़ोसी या रिश्तेदार का न आना, सड़क पर दुर्घटनाग्रस्त घायल व्यक्ति को तड़पते छोड़कर गुजर जाना, डाक्टर का धोखे से मरीज की किडनी निकाल लेना, कार को साइड न देने वाले को गोली मार देना, बेटी सदृश्य बहुओं को लोभ में पड़कर प्रताड़ित करना, भाई का हक़ हड़प लेना आदि मानवता के लिए कलंक ही तो हैं। मानवता का न होना दानवता के होने का मार्ग खोलता है। रावण द्वारा भगवे वस्त्रों में सीता जी के हरण का विचार आना उसके दानव होने की ओर बढ़ाया गया कदम था जिससे वापस लौटना रावण जैसे ज्ञानी-ध्यानी के लिए भी संभव न हुआ और उसका धन-बल, यश- कुल सब कुछ तो नष्ट हुआ ही आज तक उसको घृणा की दृष्टि से ही देखा जाता है।
विश्व में मानवता का साम्राज्य होना मानव मात्र के हित में है। विश्व शांति के लिए मानवता अनिवार्य आवश्यकता है, और यह मानवता वास्तविक होनी चाहिए शाब्दिक, सतही और दिखावटी मानवता तो साधु के वेष में सीता हरण के लिए उपस्थित रावण की तरह है जो और भी ज्यादा घातक है। कोई भी व्यक्ति दानव से तो सजग रह सकता है लेकिन मानवता की ओट में छिपे छद्म दानव से वह कैसे बचेगा?
संसार में सद्भावों के पुष्प खिले होंगे तो उनकी महक से वातावरण खुशगवार बनेगा। गुलाब की खुशबू और सुन्दरता के सामने साथ लगे कांटे भी स्वीकार्य हो जाते हैं। पुष्प की अपनी विशेषता है, जहाँ रहें वहाँ महक फैलाएं। गुलाब प्रेम का, सुन्दरता का प्रतीक है तो कमल पावनता और शीतलता का, जूही, बेला, चम्पा, चमेली हों या गेंदा अथवा रात रानी विविध पुष्पों की अपनी सुन्दरता, अपनी महक है। सन्त समागम भी प्यार, नम्रता, करुणा, स्नेह आदि मानवीय गुणों रूपी विविध पुष्पों का खिला हुआ रूप है। जिसकी रचना सद्गुरु अपनी कृपा और तप-त्याग से करते हैं, जहाँ सद्भावों की महक तो है पर दुर्भावों की उपस्थिति बिल्कुल नहीं है। सद्गुरु सम्पूर्ण विश्व का आह्वान मानवता को सुन्दर रूप देने के लिए कर रहे हैं। आइए, हम भी मानवता से युक्त विश्व की संरचना का संकल्प लें और सद्गुरु के साथ सभी मिलकर
सद्भावों के पुष्प खिलाएं, मानवतामय विश्व बनाएं।